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अ॒ग्निः पृ॒थुर्धर्म॑ण॒स्पति॑र्जुषा॒णोऽअ॒ग्निः पृ॒थुर्धर्म॑ण॒स्पति॒राज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॒। स्वाहा॑कृताः॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॑र्यतध्वꣳ सजा॒तानां॑ मध्य॒मेष्ठ्या॑य ॥२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। पृ॒थुः। धर्म॑णः। पतिः॑। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। पृ॒थुः। धर्म॑णः। पतिः॑। आज्य॑स्य। वे॒तु॒। स्वाहा॑। स्वाहा॑कृता॒ इति॒ स्वाहा॑ऽकृताः। सूर्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। य॒त॒ध्व॒म्। स॒जा॒ताना॒मिति॑ सऽजा॒ताना॑म्। म॒ध्य॒मेष्ठ्या॑य। म॒ध्यमेस्थ्या॒येति॑ मध्य॒मेऽस्थ्या॑य ॥२९॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजा के जन किस के समान क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् वा राजपत्नि ! जैसे (पृथुः) महापुरुषार्थयुक्त धर्म का (पतिः) रक्षक (जुषाणः) सेवक (अग्निः) बिजुली के समान व्यापक (सजातानाम्) उत्पन्न पदार्थों के रक्षक के साथ वर्त्तमान पदार्थों के (मध्यमेष्ठ्याय) मध्य में स्थित होके (स्वाहा) सत्य क्रिया से (आज्यस्य) घृत आदि होम के पदार्थों को प्राप्त करता हुआ (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरणों के साथ होम किये पदार्थों को फैला के सुख देता है, वैसे (धर्मणः) न्याय के (पतिः) रक्षक (पृथुः) बड़े (जुषाणः) सेवा करनेवाला (अग्निः) तेजस्वी आप राज्य को (वेतु) प्राप्त हूजिये। वैसे ही हे (स्वाहाकृताः) सत्य काम करनेवाले सभासद् पुरुषों वा स्त्री लोगो ! तुम भी (यतध्वम्) प्रयत्न किया करो ॥२९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राज और प्रजा के पुरुषो तथा राणी वा राणी के सभासदो ! तुम लोग सूर्य्य और प्रसिद्ध विद्युत् अग्नि के समान वर्त्त, पक्षपात छोड़, एक जन्म में मध्यस्थ हो के न्याय करो। वैसे यह अग्नि सूर्य्य के प्रकाश में और वायु में सुगन्धियुक्त द्रव्यों को प्राप्त करा, वायु जल और ओषधियों की शुद्धि द्वारा सब प्राणियों को सुख देता है, वैसे ही न्याययुक्त कर्मों के साथ आचरण करनेवाले होके सब प्रजाओं को सुखयुक्त करो ॥२९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजप्रजाजनाः किंवत् किंकुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(अग्निः) सूर्य इव (पृथुः) विस्तीर्णपुरुषार्थः (धर्मणः) धर्मस्य (पतिः) पालयिता (जुषाणः) सेवमानः (अग्निः) विद्युदिव (पृथुः) महान् (धर्मणः) न्यायस्य (पतिः) रक्षकः (आज्यस्य) घृतादेर्हविषः (वेतु) व्याप्नोतु (स्वाहा) सत्यया क्रियया (स्वाहाकृताः) या स्वाहा सत्यां क्रियां कुर्वन्ति ताः (सूर्यस्य) (रश्मिभिः) (यतध्वम्) (सजातानाम्) जातैः सह वर्त्तमानानाम् (मध्यमेष्ठ्याय) मध्ये पक्षपातरहिते भवे न्याये तिष्ठति तस्य भावाय ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.४.२२-२३) व्याख्यातः ॥२९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् राज्ञि वा ! यथा पृथुर्धर्मणस्पतिर्जुषाणोऽग्निः सजातानां मध्यमेष्ठ्याय स्वाहाऽऽज्यस्य वेति। सूर्यस्य रश्मिभिः सह हविः प्रसार्य्य सुखयति, तथा धर्मणस्पतिः पृथुर्जुषाणोऽग्निर्भवान् राष्ट्रं वेतु, तथा च हे स्वाहाकृताः सभासत्स्त्रियो यूयमपि प्रयतध्वम् ॥२९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजप्रजाजनाः ! यूयं यथा सूर्यप्रसिद्धविद्युदग्निवद् वर्त्तित्वा पक्षपातं विहाय समानजन्मसु मध्यस्थाः सन्तो न्यायं कुरुत। यथाऽयमग्निः सवितृप्रकाशे वायौ च सुगन्धं द्रव्यं प्राप्य वायुजलौषधिशुद्धिद्वारा सर्वान् प्राणिनः सुखयति तथा न्याययुक्तैः कर्मभिः सहचरिता भूत्वा सर्वाः प्रजाः सुखयत ॥२९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा व प्रजाजन तसेच राणी व स्त्री सभासदांनो ! सूर्य व विद्युतप्रमाणे भेदभाव न करता माणसांचा समाय न्याय करा. ज्याप्रमाणे हा यज्ञाग्नी सूर्यप्रकाशात वायूपासून सुगंधित द्रव्य प्राप्त करतो, वायू, जल आणि वृक्षवनस्पतींना शुद्ध करून सर्व प्राण्यांना सुख देतो त्याप्रमाणे न्याययुक्त कर्माचे आचरण करून सर्व प्रजेला सुखी करा.